26 मई, 2010

हमारा प्यारा भाई आशीष भाई यहाँ है

1 इस समय की सबसे क्रूर सच्चाई को न तो वाक्य की तरह लिखा जा पाना संभव हो पा रहा है और न ही एक सवाल की तरह कि 20 मई, 2010 की शाम ने हमारे प्यारे दोस्त प्यारे भाई आशीष भाई को हमसे अलग कर दिया है...



(साभार : नर्मदा बचाओ आंदोलन)

2 16-17 सालों से नर्मदा को बचाने के लिए लगातार बुलंद हो रही यह आवाज़ यकायक अपने गाँव छोटा बरदा में ख़ामोश क्या हुई मानो पूरी घाटी भी ख़ामोशी में डूब गई...



(साभार : नर्मदा बचाओ आंदोलन)

3 रहमत भाई बता रहे हैं कि "कल सुबह की ही तो बात है। मैं सब्‍जी खरीदने गया। उसने फोन पर पूछा कहाँ हो? मैनें जवाब दिया सब्‍जी मार्केट में। उसने कहा - वहीं रुकना मैं मिलने आ रहा हूँ। मैंने कहा घर आ जाओ। वह नहीं माना बोला मैं जल्‍दी में हूँ जोबट क्षेत्र (नर्मदा घाटी परियोजना के अंतर्गत एक बड़ी बॉंध परियोजना) में जा रहा हूँ, वहीं रुको में वहीं आ रहा हूँ। हमेशा की तरह ऊर्जा से भरपूर मुस्‍कराता चेहरा लिए वह आया। बात तो कुछ खास नहीं थी, बात पहले भी हुई थी तथा फोन पर भी हो सकती थी- एक सूचना का अधिकार अर्जी के बारे में। लेकिन शायद वह आखिरी बार मिलना चाहता था इसलिए आया। सब्‍जी मंडी में ही मुश्किल से 1 मिनिट की सक्षिंप्‍त चर्चा (वास्‍तव में चर्चा जैसा कुछ था ही नहीं) के बाद उसने कहा कि "मैं निकल रहा हूँ।" किसे पता था कि शाम तक वह हमसे इतनी दूर निकल जायेगा..."


(साभार : नर्मदा बचाओ आंदोलन)


4 बिपिन चन्द्र कह रहे हैं "जब आज नर्मदा घाटी एक चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा है, तभी आशीष हमसे दूर हो गये। नर्मदा आन्दोलन के एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर वे घाटी के तमाम प्रभावितों एवं बाहर की दुनिया के साथ एक मजबूत कड़ी की भूमिका निभाते थे। वे नर्मदा आन्दोलन के उन पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं में से थे जो कि खुद विवादास्पद सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र के प्रभावित हैं।... यदि हमें विस्थापन, अन्याय एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना है तो हमें उस जज्बे को जिंदा रखना होगा, जिसे इन लोगों ने जीवन पर्यन्त कायम रखा।"


(साभार : नर्मदा बचाओ आंदोलन)

5 चित्‍तरुपा पालित कह रही हैं कि "बहुत कम लोग संघर्ष का कठिन रास्‍ता अख्तियार करते हैं। लेकिन आशीष ने संसाधनों के संरक्षण की जंग योध्‍दा बनकर युवाओं को प्रेरणा दी है।"


(साभार : नर्मदा बचाओ आंदोलन)


6 मेधा पाटकर कह रही हैं कि "आशीष बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। नर्मदा बचाओ आंदोलन के अलावा वे देश के अनेक जन संगठनों के भी साथ थे। संघर्ष के साथ ही शिक्षा, सूचना का अधिकार तथा जैविक खेती में भी उनकी दखल थी। उन्‍होंने स्‍वीकार किया कि आशीष के असमय हमसे बिछुड़ जाने से एक खालीपन आया है। उन्‍होंने घाटी के युवाओं से आव्‍हान किया कि वे इस चुनौती की स्‍वीकार करें तथा आशीष की कमी को महसूस न होने दें।"




(साभार : नर्मदा बचाओ आंदोलन)
7 आशीष भाई का सारा जीवन नर्मदा घाटी के लिए समर्पित रहा है। उन्‍हें नर्मदा घाटी के गॉंवों से लगाव रहा है। इसलिए उन्‍हें दोस्तों ने श्रद्धांजलि देते हुए यह फैसला लिया है की उनकी अस्थियों को नर्मदा में एक स्‍थान पर वि‍सर्जित करने के बजाय राजघाट, भादल, मणिबेली, पाल्‍या, चिखल्‍दा, कसरावद, पिपलुद, महेश्‍वर, सेमल्‍दा आदि गॉंवों में और नर्मदा की सहायक नदियों मान, हथिनी, गोई, वेदा में विसर्जित किया जाएगा।


(साभार : नर्मदा बचाओ आंदोलन)
8 आशीष भाई की अस्थियों के विसर्जन की शुरुआत राजघाट से हुई है...


(साभार : नर्मदा बचाओ आंदोलन)


9 माँ रेवा की तरह ही उनका जीवन भी कल कल बहता रहेगा...


(साभार : नर्मदा बचाओ आंदोलन)

17 मई, 2010

थार का अकाल और सुकाल का टांका














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कनौड़ के मुरली चौधरी कहते हैं- ‘‘टांका धरती के भीतर बना ऐसा छोटा-सा टैंक है जो आपको ज्यादातर घरों के आंगन में दिखलाई देगा।’’ ‘‘यहां की धरती के लिहाज से गोलाकार टांके मुनासिब होते हैं’’: ऐसी बातें फतेहपुर से आए खियारामजी से पता पड़ी- ‘‘गोलाकार टांके में पानी का दबाव दीवार पर इस तरह से बन जाता है कि संतुलन बराबर रहता है। इससे दीवार ढ़हने का खतरा कम हो जाता है।’’ आमतौर से यहां 12 गुणा 12 वर्ग फीट वाले टांके दिखाई पड़ते हैं। इसमें 30 फीट का आगोर (केंचमेंट) रहता है। अकड़दरा की सीतामणी बताती हैं- ‘‘इसे (आगोर) पहले कच्चा बनाते हैं, फिर चिकनी माटी डालकर कूट-कूटकर सख्त और चिकना करते हैं। इससे बरसात का पानी जमीन के आजू-बाजू न फैलकर सीधा टांके में ही भरता है।’’ इस तरह की साइज और डिजाइन वाला टांका मानो यहां सफल माडल के तौर पर अपना लिया गया है। मनावड़ी के ठाकराराम कहते हैं- ‘‘सरकार ने जो माडल बनाए थे वो सफल नहीं रहे। एक तो स्थानीय हालातों के लिहाज से उनके साइज (20 गुणा 20 फीट) ठीक नहीं थे, दूसरा वो सार्वजनिक टांके थे सो दलितों को पानी के लेने में खासी परेशानी होती।’’


















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अगर आकड़ों के ऊंट पर सवार हुआ जाए तो 2000 से 2008 तक इलाके भर में कुल 1200 टांके बने। 2008 को संस्थान ने टांके बनाने के काम को नरेगा याने सरकारी स्तर पर जोड़ने की जन-वकालत छेड़ी और जीती। आज की तारीख तक नरेगा के जरिए जिले भर में ज्यादा नहीं तो कम-से-कम 50,000 टांके बनाए जा रहे हैं। कार्यकर्ताओं के मुताबिक नरेगा में टांके बनाने के काम सबसे पहले यही से शुरू हुए। यह कहते हैं आज बाड़मेर, जोधपुर और जेसलमेर जिलों सहित पश्चिमी राजस्थन भर में नरेगा का ज्यादातर पैसा टांके बनाने में ही खर्च हो रहा है।













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9 साल पहले2000 को ‘लोक कल्याण संस्थान’ ने बायतु ब्लाक के 12 गांवों में पीने, बर्तन, कपड़े, पशु, निर्माण और तीज-त्यौहार में खर्च होने वाले पानी की कुल मांग का हिसाब लगाने के लिए अध्ययन किया। इससे पता लगा कि यहां तो कुल जरूरत का 10 प्रतिशत पानी ही पूरा हो पाता है। ऐसे में पानी की कुल मांग का 90 प्रतिशत अंतर पाटना एक बड़ा सवाल था। जबावदारी के नजरिए से सरकार टैंकरों से 10 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी निभा रही थी, इसके बाद जनता 200 से 250 फीट जमीन के नीचे से 20 प्रतिशत तक खारा पानी निकालकर उसे मीठे पानी में मिलाकर पीने को मजबूर होती। फिर भी तो पानी की कुल मांग का 70 प्रतिशत अंतर बना रहता, जिसे भरने के लिए बड़े पैमाने पर निजी टांके बनाने की पहल हुई। बरसात की बूंदों को सहेजने वाली इस पंरपरागत शैली को मुहिम का रंग-रुप देने से यहां 40 प्रतिशत तक पानी की जरूरत का इंतजाम करने की भूमिका बंधी। वैसे पानी की कुल मांग का 30 प्रतिशत अंतर अब भी कम नहीं कहलाता। इसीलिए तो यहां मटके लेकर खड़ी औरतों की लंबी लाइन वाले दृश्य (संकट के कम बादलों के साथ) जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। ‘लोक कल्याण संस्थान’ के भंवरलाल चौधरी कहते हैं- ‘‘यहां के 100 सालों में से 80 तो अकाल के नाम रहे। बाकी के 10 साल सुकाल और 10 साल ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ भरा मामला रहा। इसके अलावा हमने बरसात और जमीन के जल स्तरों की थाह भी मापी। यह गुणा-भाग लगाया कि कितने टांके से कितनी पानी की मांग पूरी हो सकती है।’’ भंवर भाई और उनके दोस्तों को सबसे पहले 34 घरों वाले भीलों की बस्ती में 40 टांके बनाने की बात समझ में आई। यहां के लोगों की मदद से 40 टांके बनाये भी गए। फिर तो एक के बाद एक टांके बनाने वाले दर्जनों गांवों के नाम जुड़ते गए-













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बायतु ब्लाक की 47 में से 42 पंचायतों का पानी ऐसा खारा (फ्लोराइट-8 पीपीएम) है कि गले नहीं उतरता। मीठे पानी का इकलौता जरिया है भी तो 60 किलोमीटर दूर शिव ब्लाक के उण्डू में। उधर की पाइपलाइन से आने वाला मीठा पानी 42 किलोमीटर की यात्रा करके खानजी का बेटा गांव से दो धाराओं में फूटता है। एक का रास्ता 18 किलोमीटर दूर पनावड़ा की तरफ जाता है, दूसरा इतनी ही दूरी के बाद बायतु से होकर गिरा तक गिरता है। लेकिन अब यह पूरी पाइपलाइन बहुत पुरानी और खस्ताहाल है, कचरा जमा होने के अलावा इसके कनेक्शन भी जगह-जगह से खुले मिलते हैं। इसकी लंबाई के चलते पानी की आपूर्ति महीने में 5 रोज और उसमें भी मुश्किल से 2 घण्टे हो पाती है। यह पानी घर-घर पहुंचने की बजाय सामुदायिक होदी तक ही पहुंचता है, यही से मटके लेकर खड़ी औरतों की लंबी लाइन लग जाती है। नए दोस्तों के हवाले से- यह दृश्य तो कुछ भी नहीं, 9 साल पहले आया होता तो संकट के बादल और भी घनघोर देखने को मिलतें।












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सरकार की सुनें तो नरेगा ( राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) में 100 रु. ‘न्यूनतम मजदूरी’ है लेकिन मांग के मुताबिक भुगतान न होने से 100 रु. भी नहीं मिलते. ऐसे में 100 रु. को ‘अधिकतम मजदूरी’ कहना चाहिए. वैसे 100 रु. को भी घटाने की तैयारियां चल रही हैं. स्थानीय स्थितियों को देखते हुए यह सवाल बड़े काम का है, काम के बदले आखिर करवाया क्या? जैसे कि जिन गांवों में नाड़ियां (तालाब) नहीं हैं, हो भी नहीं सकते, क्योंकि वहां न पानी आता है, न रेतीली जमीनों में ठहरता है, वहां नालियां बनवाने से कोई फायदा नहीं. इसके बावजूद नालियां बनवाकर लाखों रु. राहत वाली फाइलों में चढ़ जाते हैं.













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राहत योजनाएं अप्रैल से जून यानी साल के तीन महीनों के लिए ही होती हैं. इस दरम्यान बगैर पाइपलाइन वाले इलाकों में टैंकरों से पानी पहुंचाने की कोशिश होती है. लेकिन फतेहपुर के खियाराम कहते हैं- “जहां-जहां पाइपलाइन हैं, उनमें से ज्यादातर इलाकों में पानी की व्यवस्थाएं ठप्प हैं.” यानी ऊपर से ही यह मानकर चला जाता है कि व्यवस्थाएं सुचारू ढ़ंग से चल रही हैं.












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1947 के बाद, 62 सालों में एक बार सूखे का स्थायी हल खोजने की कोशिश हुई थी. राजीव गांधी के समय, पंजाब के हरिकेन बांध से जो इंदिरा-गांधी नहर गडरा (बाड़मेर) तक आनी थी, उसे भी केंद्रीय सत्ता में बैठी ताकतों ने अपने फायदे के लिए मोड़ लिया. नहर को गंगानगर, बीकानेर, जैसलमेर से होकर करीब 800 किमी का रास्ता तय करना था, जैसे ही यह 300 किमी दूर बीकानेर पहुंची वैसे ही तत्कालीन कपड़ा मंत्री अशोक गहलोत (अबके मुख्यमंत्री) ने पाइपलाइन का रुख जोधपुर की कायलाना झील की तरफ करवा दिया. इससे पहला फायदा महाराजा गजोसिंह को हुआ और झील का पट्टा आज भी उन्हीं के नाम चढ़ा हुआ है. पानी पहुंचते ही पर्यटन का उनका धंधा लहलहा उठा, होटल तो था ही, हुजूर ने ‘वाटर रिसोर्स सेंटर’ के नाम पर महल भी बनवा लिया. अशोक गहलोत, जो खुद भी माली जाति और जोधपुर इलाके से हैं, उन पर ‘माली लॉबी’ के दबाव में काम करने का आरोप लगा क्योंकि पाइपलाइन मोड़ने का दूसरा फायदा माली जाति के कुओं को रिचार्ज करने में हुआ. लिहाजा असली प्रभावितों की आंखे बेवफा बादलों को घूरती रह गई.













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बायतु, बाड़मेर, राजस्थान



24 अगस्त, 2009



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अंग्रेजी हुकूमत में अकाल से निपटने के लिए 'फेमिन कोड' (अकाल संहिता) बुकलेट बनी थी. हमारी सरकार आज तक उसी को लेकर बैठी है. आस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड और सऊदी अरब जैसे देशों में अकालरोधी नीतियां हैं; भारत देश या राजस्थान प्रदेश में जहां 100 में से 90 साल सूखा पड़ता है, कोई नीति नहीं है. बायतु, बाड़मेर के भंवरलाल चौधरी और उनके साथी कहते हैं- “पानी, अनाज और चारे का न होना ही अकाल है. अगर पीने के लिए पानी, लोगों को अनाज और पशुओं को चारा मिल जाए तो फिर पानी गिरे या न गिरे, काहे का अकाल.”













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बायतु, बाड़मेर, राजस्थान

24 अगस्त, 2009

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थार में फिर अकाल के हालात बन पड़े हैं- इस समय की सबसे खतरनाक पंक्ति को सवाल की तरह कहा जाना चाहिए. दरअसल अकाल को बरसात से जोड़कर देखा जाता है और राजस्थान के अकालग्रस्त जिलों से लेकर जयपुर या दिल्ली तक नेताओं, अफसरों और जनता के बड़े तबके तक यही समझ बनी हुई है. कुछ तो जानबूझकर और कुछ मजबूरी में. लेकिन हकीकत यह भी है कि आस्ट्रेलिया या खाड़ी जैसे दुनिया के अनेक हिस्सों में तो और भी कम बरसात होती है मगर वहां अकाल का साया नहीं पड़ता. तो क्या भारत में अकाल की जड़े सरकारी अनदेखी से जुड़ी हैं ?

06 जनवरी, 2010

पत्थरों पे अन्न उगातीं औरतें















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कलम्ब, उस्मानाबाद, महाराष्ट्र


4 दिसंबर, 2008


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देश में कुल आबादी का एक-चौथाई हिस्सा दलितों और आदिवासियों का है। मगर उनके पास खेतीलायक जमीन का महज 17.9 प्रतिशत हिस्सा है। इसी तरह कुल आबादी में करीब आधी हिस्सेदारी औरतों की है। जो कुल मेहनत में बड़ी हिस्सेदारी निभाती हैं और उन्हें कुल आमदनी का 10 वां हिस्सा मिलता है। ऐसे में दलित और उस पर भी एक औरत होने की स्थिति को आसानी से जाना जा सकता है।















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कलम्ब, उस्मानाबाद, महाराष्ट्र


4 दिसंबर, 2008

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मगर मराठवाड़ा की दलित औरतें धीरे-धीरे जाति की जड़ों को काटकर और पथरीली जमीनों से फसल उगाकर अपना दर्जा खुद तय कर रही है। यहां ‘कुल कितनी जमीनों में से कितना अन्न उगाया है’ के हिसाब से किसी आदमी की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां बनती-बिगड़ती हैं। तारामती अपने तजुर्बे से ऐसी बातें अब खूब जानती है।


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कलम्ब, उस्मानाबाद, महाराष्ट्र


4 दिसंबर, 2008


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एक रोज इन औरतों ने चर्चा में पाया कि जब तक जमीनों से फसल नहीं लेंगे तब तक रोज-रोज की मजूरी के भरोसे ही बैठे रहेंगे। अगले रोज सबके भरोसे में उन्होंने अपना-अपना भरोसा जताया और गांव से बाहर बंजर पड़ी अपनी जमीनों पर खेती करने की हिम्मत जुटायी। जैसे कि आशंका थी, गांव में दबंग जात वालों के अत्याचार बढ़ गए। उन्होंने सोचा कि जो कल तक हमारे गुलाम थे, वो अगर मालिक बने तो उनके खेत कौन जोतेगा ? पंचायत चलाने वाले ऐसे बड़े लोगों ने खूब धमकियां दीं। मगर अब ये अकेली नहीं थीं, संगठन के बहुत सारी औरतें भी तो इनके साथ थीं। इसलिए इन्होने आगे आकर ललकारा कि 'अगर तुम अपनी ताकत अजमाओगे, हमारे पतियों को मारोगे, तो हम भी दिखा देंगे कि हम क्या कर सकते हैं ?’

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कलम्ब, उस्मानाबाद, महाराष्ट्र


4 दिसंबर, 2008

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जिन दलित औरतें से रोजाना रोटी की उलझन नहीं सुलझती थी, अब वही पत्थरों के रास्ते बदलाव की तरकीब सुझा रहीं हैं। जानवर चराने वाली पहाड़ियों पर ज्वार पैदा करना अतिशेक्ति अंलकार जैसा लगता है।