17 मई, 2010














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9 साल पहले2000 को ‘लोक कल्याण संस्थान’ ने बायतु ब्लाक के 12 गांवों में पीने, बर्तन, कपड़े, पशु, निर्माण और तीज-त्यौहार में खर्च होने वाले पानी की कुल मांग का हिसाब लगाने के लिए अध्ययन किया। इससे पता लगा कि यहां तो कुल जरूरत का 10 प्रतिशत पानी ही पूरा हो पाता है। ऐसे में पानी की कुल मांग का 90 प्रतिशत अंतर पाटना एक बड़ा सवाल था। जबावदारी के नजरिए से सरकार टैंकरों से 10 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी निभा रही थी, इसके बाद जनता 200 से 250 फीट जमीन के नीचे से 20 प्रतिशत तक खारा पानी निकालकर उसे मीठे पानी में मिलाकर पीने को मजबूर होती। फिर भी तो पानी की कुल मांग का 70 प्रतिशत अंतर बना रहता, जिसे भरने के लिए बड़े पैमाने पर निजी टांके बनाने की पहल हुई। बरसात की बूंदों को सहेजने वाली इस पंरपरागत शैली को मुहिम का रंग-रुप देने से यहां 40 प्रतिशत तक पानी की जरूरत का इंतजाम करने की भूमिका बंधी। वैसे पानी की कुल मांग का 30 प्रतिशत अंतर अब भी कम नहीं कहलाता। इसीलिए तो यहां मटके लेकर खड़ी औरतों की लंबी लाइन वाले दृश्य (संकट के कम बादलों के साथ) जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। ‘लोक कल्याण संस्थान’ के भंवरलाल चौधरी कहते हैं- ‘‘यहां के 100 सालों में से 80 तो अकाल के नाम रहे। बाकी के 10 साल सुकाल और 10 साल ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ भरा मामला रहा। इसके अलावा हमने बरसात और जमीन के जल स्तरों की थाह भी मापी। यह गुणा-भाग लगाया कि कितने टांके से कितनी पानी की मांग पूरी हो सकती है।’’ भंवर भाई और उनके दोस्तों को सबसे पहले 34 घरों वाले भीलों की बस्ती में 40 टांके बनाने की बात समझ में आई। यहां के लोगों की मदद से 40 टांके बनाये भी गए। फिर तो एक के बाद एक टांके बनाने वाले दर्जनों गांवों के नाम जुड़ते गए-

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