17 मई, 2010

थार का अकाल और सुकाल का टांका














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कनौड़ के मुरली चौधरी कहते हैं- ‘‘टांका धरती के भीतर बना ऐसा छोटा-सा टैंक है जो आपको ज्यादातर घरों के आंगन में दिखलाई देगा।’’ ‘‘यहां की धरती के लिहाज से गोलाकार टांके मुनासिब होते हैं’’: ऐसी बातें फतेहपुर से आए खियारामजी से पता पड़ी- ‘‘गोलाकार टांके में पानी का दबाव दीवार पर इस तरह से बन जाता है कि संतुलन बराबर रहता है। इससे दीवार ढ़हने का खतरा कम हो जाता है।’’ आमतौर से यहां 12 गुणा 12 वर्ग फीट वाले टांके दिखाई पड़ते हैं। इसमें 30 फीट का आगोर (केंचमेंट) रहता है। अकड़दरा की सीतामणी बताती हैं- ‘‘इसे (आगोर) पहले कच्चा बनाते हैं, फिर चिकनी माटी डालकर कूट-कूटकर सख्त और चिकना करते हैं। इससे बरसात का पानी जमीन के आजू-बाजू न फैलकर सीधा टांके में ही भरता है।’’ इस तरह की साइज और डिजाइन वाला टांका मानो यहां सफल माडल के तौर पर अपना लिया गया है। मनावड़ी के ठाकराराम कहते हैं- ‘‘सरकार ने जो माडल बनाए थे वो सफल नहीं रहे। एक तो स्थानीय हालातों के लिहाज से उनके साइज (20 गुणा 20 फीट) ठीक नहीं थे, दूसरा वो सार्वजनिक टांके थे सो दलितों को पानी के लेने में खासी परेशानी होती।’’

1 टिप्पणी:

  1. आप हिंदी में लिखते हैं। अच्छा लगता है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं

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