06 जनवरी, 2010
















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कलम्ब, उस्मानाबाद, महाराष्ट्र


4 दिसंबर, 2008

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मगर मराठवाड़ा की दलित औरतें धीरे-धीरे जाति की जड़ों को काटकर और पथरीली जमीनों से फसल उगाकर अपना दर्जा खुद तय कर रही है। यहां ‘कुल कितनी जमीनों में से कितना अन्न उगाया है’ के हिसाब से किसी आदमी की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां बनती-बिगड़ती हैं। तारामती अपने तजुर्बे से ऐसी बातें अब खूब जानती है।

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